मन्दिर-स्थापत्य की शास्त्रीय परम्परा में शिखर: - उत्पत्ति, विकास तथा दार्शनिक मर्म

मन्दिर-स्थापत्य की शास्त्रीय परम्परा में शिखर: - उत्पत्ति, विकास तथा दार्शनिक मर्म

Abstract

विश्व के कलाक्षेत्र में प्राचीन भारतीय वास्तुकला अपना एक अनूठा स्थान आरक्षित रखती है. ऋग्वेद के समय से भारत में लोकजीवन एवं धर्म के साथ वास्तुकला का संबंध अटूट रहा है, किन्तु मन्दिर‐प्रासाद के उद्भव के साथ वह संबंध विशेष रूप से उजागर हुआ दिखाई देता है.
विश्व के धाॢमक स्थापत्यों (Theistic architecture) की श्रेणी में प्राचीन भारतीय मन्दिर‐प्रासाद की अपनी विशिष्ठ पहचान एवं अप्रतिम स्थान है. वास्तुकला के वैश्विक क्षेत्र में मन्दिर की पहचान (Identity) को बनाने में प्रासाद पर स्थित शिखर का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है. पूर्व‐पश्चिम, उत्तर‐दक्षिण भारत में शिखर की अपनी-अपनी परम्परा रही है. जिसमें उत्तर, पश्चिम व मध्य भारत में विकसित नागर शैली के मन्दिर‐प्रासाद अपने वक्राकार रेखाशिखर के लिए विशेष प्रसिद्ध हैं.
यद्यपि शिखरयुक्त मन्दिरों के प्रकार निर्धारण करने में विद्वानों के मत अलग-अलग हों, किन्तु इस बात पर सभी एक मत हैं कि इसके पाश्र्वभू में एक दार्शनिक चिंतन है, जिसके कारण आजपर्यंत धाॢमक इमारतों के इतिहास में मन्दिर ने अपना स्थान अनुपम बना रखा है.
यह शोधपत्र मन्दिर‐प्रासाद की उत्पत्ति से लेकर शिखर की रचना के इतिहास पर दृष्टि करते हुए, अंत में दार्शनिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है. युगों से भारतीय दार्शनिक परम्परा में अक्षरब्रह्मï का विषय चर्चा के केन्द्र में रहा है, वही अक्षरब्रह्मï मन्दिर‐प्रासाद के रूप में परब्रह्मï को धारण करता है, वह इस शोधपत्र की फलश्रुति है.
इसके साथ ही आध्यात्मिकता एवं प्राचीन भारतीय वास्तुकला का अटूट संबंध यहाँ स्पष्ट किया गया है.

Copyright (c) 2022 The BAPS Swaminarayan Research Journal

How to Cite

Sadhu Aksharvatsaldas. (2022). मन्दिर-स्थापत्य की शास्त्रीय परम्परा में शिखर: - उत्पत्ति, विकास तथा दार्शनिक मर्म. The BAPS Swaminarayan Research Journal, 1(1), 75–97. Retrieved from https://r4.devvidya.org/journal/index.php/BSRJ/article/view/01_01_06

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